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Tuesday, March 24, 2015

A background to Section 66A of the IT Act, 2000

A few minutes ago, the Supreme Court delivered a judgement striking down Section 66 A of the Information Technology Act, 2000. This was in response to a PIL that challenged the constitutionality of this provision. In light of this, we present a background to Section 66 A and the recent developments leading up to its challenge before the Court.

What does the Information Technology Act, 2000 provide for?
  • The Information Technology (IT) Act, 2000 provides for legal recognition for transactions through electronic communication, also known as e-commerce. The Act also penalizes various forms of cyber crime. The Act was amended in 2009 to insert a new section, Section 66A which was said to address cases of cyber crime with the advent of technology and the internet.

What does Section 66(A) of the IT Act say?
  • Section 66(A) of the Act criminalises the sending of offensive messages through a computer or other communication devices. Under this provision, any person who by means of a computer or communication device sends any information that is:
  1. grossly offensive;
  2. false and meant for the purpose of causing annoyance, inconvenience, danger, obstruction, insult, injury, criminal intimidation, enmity, hatred or ill will;
  3. meant to deceive or mislead the recipient about the origin of such messages, etc, shall be punishable with imprisonment up to three years and with fine. 
Over the past few years, incidents related to comments, sharing of information, or thoughts expressed by an individual to a wider audience on the internet have attracted criminal penalties under Section 66(A). This has led to discussion and debate on the ambit of the Section and its applicability to such actions.

What have been the major developments in context of this Section?
  • In the recent past, a few arrests were made under Section 66(A) on the basis of social media posts directed at notable personalities, including politicians. These were alleged to be offensive in nature. In November 2012, there were various reports of alleged misuse of the law, and the penalties imposed were said to be disproportionate to the offence.
  • Thereafter, a Public Interest Litigation (PIL) was filed in the Supreme Court, challenging this provision on grounds of unconstitutionality. It was said to impinge upon the freedom of speech and expression guaranteed by Article 19(1)(a) of the Constitution.
How has the government responded so far?
  • Subsequently, the central government issued guidelines for the purposes of Section 66(A). These guidelines clarified that prior approval of the Deputy Commissioner or Inspector General of Police was required before a police officer or police station could register a complaint under Section 66(A). In May 2013, the Supreme Court (in relation to the above PIL) also passed an order saying that such approval was necessary before any arrest is to be made. Since matters related to police and public order are dealt with by respective state governments, a Supreme Court order was required for these guidelines to be applicable across the country. However, no changes have been made to Section 66 A itself. 
Has there been any legislative movement with regard to Section 66(A)?
  • A Private Member Bill was introduced in Lok Sabha in 2013 to amend Section 66(A) of the IT Act. The Statement of Objects and Reasons of the Bill stated that most of the offences that Section 66(A) dealt with were already covered by the Indian Penal Code (IPC), 1860. This had resulted in dual penalties for the same offence. According to the Bill, there were also inconsistencies between the two laws in relation to the duration of imprisonment for the same offence. The offence of threatening someone with injury through email attracts imprisonment of two years under the IPC and three years under the IT Act. The Bill was eventually withdrawn.
  • In the same year, a Private Members resolution was also moved in Parliament. The resolution proposed to make four changes: (i) bring Section 66(A) in line with the Fundamental Rights of the Constitution; (ii) restrict the application of the provision to communication between two persons; (iii) precisely define the offence covered; and (iv) reduce the penalty and make the offence a non-cognizable one (which means no arrest could be made without a court order). However, the resolution was also withdrawn.
Meanwhile, how has the PIL proceeded?
  • According to news reports, the Supreme Court in February, 2015 had stated that the constitutional validity of the provision would be tested, in relation to the PIL before it. The government argued that they were open to amend/change the provision as the intention was not to suppress freedom of speech and expression, but only deal with cyber crime. 
  • The issues being examined by the Court relate to the powers of the police to decide what is abusive, causes annoyance, etc,. instead of the examination of the offence by the judiciary . This is pertinent because this offence is a cognizable one, attracting a penalty of at least three years imprisonment. The law is also said to be ambiguous on the issue of what would constitute information that is “grossly offensive,” as no guidelines have been provided for the same. This lack of clarity could lead to increased litigation.
  • The judgement is not available in the public domain yet. It remains to be seen on what the reasoning of the Supreme Court was, in its decision to strike down Section 66A, today.

कितने लोग इस भगत सिंह को जानते हैं


इंसान को संस्कार सिर्फ माता पिता या परिवार से ही नहीं मिलते. समाज भी अपने ढंग से संस्कारों के बीज बोता है. पिछली सदी के शुरुआती साल कुछ ऐसे ही थे. उस दौर में संस्कारों और विचारों की जो फसल उगी, उसका असर आज भी दिखाई देता है. उन दिनों गोरी हुक़ूमत ने ज़ुल्मों की सारी सीमाएं तोड़ दी थीं. देशभक्तों को कीड़े मकोड़ों की तरह मारा जा रहा था. किसी को भी फाँसी चढ़ा देना सरकार का शग़ल बन गया था. ऐसे में जब आठ साल के बालक भगत सिंह ने किशोर क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा को वतन के लिए हँसते हँसते फाँसी के तख़्ते चढ़ते देखा तो हमेशा के लिए करतार देवता की तरह उसके बालमन के मंदिर में प्रतिष्ठित हो गए. चौबीस घंटे करतार की तस्वीर भगत सिंह के साथ रहती. सराभा की फाँसी के रोज़ क्रांतिकारियों ने जो गीत गाया था, वो भगत सिंह अक्सर गुनगुनाया करता. इस गीत की कुछ पंक्तियाँ थीं- फ़ख्र है भारत को ऐ करतार तू जाता है आज/ जगत औ पिंगले को भी साथ ले जाता है आज/ हम तुम्हारे मिशन को पूरा करेंगे संगियो/ क़सम हर हिंदी तुम्हारे ख़ून की खाता है आज/

कुछ बरस ही बीते थे कि जलियाँवाला बाग़ का बर्बर नरसंहार हुआ. सारा देश बदले की आग में जलने लगा. भगत सिंह का ख़ून खौल उठा. कुछ संकल्प अवचेतन में समा गए. 1857 के ग़दर से लेकर कूका विद्रोह तक जो भी साहित्य मिला, अपने अंदर पी लिया. एक एक क्रांतिकारी की कहानी किशोर भगतसिंह की ज़ुबान पर थी. होती भी क्यों न. परिवार की कई पीढ़ियाँ अंगरेज़ी राज से लड़तीं आ रही थीं. दादा अर्जुनसिंह, पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और चाचा स्वर्ण सिंह को देश के लिए मर मिटते भगत सिंह ने देखा था. चाचा स्वर्ण सिंह सिर्फ 23 साल की उमर में जेल की यातनाओं का विरोध करते हुए शहीद हो चुके थे. दूसरे चाचा अजीत सिंह को देश निकाला दिया गया था. दादा और पिता आए दिन आंदोलनों की अगुआई करते जेल जाया करते थे. पिता गांधी और कांग्रेस के अनुयायी थे तो चाचा गरम दल की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे. घर में घंटों बहसें होती थीं. भगत सिंह के ज़ेहन में विचारों की फसल पकती रही.

सोचिए! भगत सिंह पंद्रह-सोलह साल के थे और नेशनल कॉलेज लाहौर में पढ़ रहे थे. देश को आज़ादी कैसे मिले, इस पर अपने शिक्षकों और सहपाठियों से चर्चा किया करते थे. जितनी अच्छी हिन्दी और उर्दू, उतनी ही अंगरेज़ी और पंजाबी. इसी कच्ची आयु में भगत सिंह ने पंजाब में उठे भाषा विवाद पर झकझोरने वाला लेख लिखा. लेख पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने पचास रूपए का इनाम दिया. भगत सिंह की शहादत के बाद 28 फ़रवरी, 1933 को हिंदी संदेश में यह लेख प्रकाशित हुआ था. लेख की भाषा और विचारों का प्रवाह अदभुत है. एक हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है- "इस समय पंजाब में उर्दू का ज़ोर है. अदालतों की भाषा भी यही है. यह सब ठीक है परन्तु हमारे सामने इस समय मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है. एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता. उसके लिए क़दम क़दम चलना पड़ता है. यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देना चाहिए. उर्दू लिपि सर्वांग -संपूर्ण नहीं है. फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी पर है. उर्दू कवियों की उड़ान चाहे वो हिन्दी( भारतीय ) ही क्यों न हों -ईरान के साक़ी और अरब के खजूरों तक जा पहुँचती है. क़ाज़ी नज़र-उल-इस्लाम की कविता में तो धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार बार है, लेकिन हमारे उर्दू, हिंदी, पंजाबी कवि उस ओर ध्यान तक न दे सके. क्या यह दुःख की बात नहीं? इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है. उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती, तो फिर उनके रचे गए साहित्य से हम कहाँ तक भारतीय बन सकते हैं?…तो उर्दू अपूर्ण है और जब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित सर्वांग-संपूर्ण हिंदी लिपि विधमान है, फिर उसे अपने अपनाने में हिचक क्यों? हिंदी के पक्षधर सज्जनों से हम कहेंगे कि हिंदी भाषा ही अंत में एक दिन भारत की भाषा बनेगी, परंतु पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी."
सोलह-सत्रह बरस के भगत सिंह की इस भाषा पर आप क्या टिप्पणी करेंगे? इतनी सरल और कमाल के संप्रेषण वाली भाषा भगत सिंह ने बानवे-तिरानवे साल पहले लिखी थी. आज भी भाषा के पंडित और पत्रकारिता के पुरोधा इतनी आसान हिंदी नहीं लिख पाते और माफ़ कीजिए हमारे अपने घरों के बच्चे क्या सोलह-सत्रह की उमर में आज इतने परिपक्व हो पाते हैं. नर्सरी-केजी-वन, केजी-टू के रास्ते पर चलकर इस उमर में वे दसवीं या ग्यारहवीं में पढ़ते हैं और उनके ज्ञान का स्तर क्या होता है- बताने की ज़रूरत नहीं. इस उमर तक भगत सिंह विवेकानंद, गुरुनानक, दयानंद सरस्वती, रवींद्रनाथ ठाकुर और स्वामी रामतीर्थ जैसे अनेक भारतीय विद्वानों का एक-एक शब्द घोंट कर पी चुके थे. यही नहीं विदेशी लेखकों-दार्शनिकों और व्यवस्था बदलने वाले महापुरुषों में गैरीबाल्डी और मैजिनी, कार्ल मार्क्स, क्रोपाटकिन, बाकुनिन और डेनब्रीन तक भगत सिंह की आँखों के साथ अपना सफ़र तय कर चुके थे.

उमर के इसी पड़ाव पर परंपरा के मुताबिक़ परिवार ने उनका ब्याह रचाना चाहा तो पिता जी को एक चिठ्ठी लिखकर घर छोड़ दिया.

सोलह साल के भगत सिंह ने लिखा,

पूज्य पिता जी,

नमस्ते!

मेरी ज़िंदगी भारत की आज़ादी के महान संकल्प के लिए दान कर दी गई है. इसलिए मेरी ज़िंदगी में आराम और सांसारिक सुखों का कोई आकर्षण नहीं है. आपको याद होगा कि जब मैं बहुत छोटा था, तो बापू जी (दादाजी) ने मेरे जनेऊ संस्कार के समय ऐलान किया था कि मुझे वतन की सेवा के लिए वक़्फ़ (दान) कर दिया गया है. लिहाज़ा मैं उस समय की उनकी प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ. उम्मीद है आप मुझे माफ़ कर देंगे

आपका ताबेदार

भगतसिंह

घर छोड़कर भगतसिंह जा पहुँचे थे कानपुर. महान देशभक्त पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उन दिनों कानपुर से प्रताप का प्रकाशन करते थे. वे तब बलवंत सिंह के नाम से लिखा करते थे. उनके विचारोतेजक लेख प्रताप में छपते और उन्हें पढ़कर लोगों के दिलो दिमाग में क्रांति की चिनगारी फड़कने लगती. उन्हीं दिनों कलकत्ते से साप्ताहिक मतवाला निकलता था. मतवाला में लिखे उनके दो लेख बेहद चर्चित हुए. एक का शीर्षक था- विश्वप्रेम. पंद्रह और बाईस नवंबर 1924 को दो किस्तों में यह लेख प्रकाशित हुआ. लेख के इस हिस्से में देखिए भगत सिंह के विचारों की क्रांतिकारी अभिव्यक्ति.

” जब तक काला-गोरा, सभ्य-असभ्य, शासक-शासित, अमीर-ग़रीब, छूत-अछूत आदि शब्दों का प्रयोग होता है, तब तक कहाँ विश्व बंधुत्व और कहाँ विश्व प्रेम? यह उपदेश स्वतंत्र जातियाँ दे सकती हैं. भारत जैसा ग़ुलाम देश तो इसका नाम भी नहीं ले सकता. फिर उसका प्रचार कैसे होगा? तुम्हें शक्ति एकत्र करनी होगी. शक्ति एकत्रित करने के लिए अपनी एकत्रित शक्ति ख़र्च कर देनी पड़ेगी. राणा प्रताप की तरह ज़िंदगी भर दर-दर ठोकरें खानी होंगी, तब कहीं जाकर उस परीक्षा में उतीर्ण हो सकोगे……. तुम विश्व प्रेम का दम भरते हो. पहले पैरों पर खड़े होना सीखो. स्वतंत्र जातियों में अभिमान के साथ सिर ऊँचा करके खड़े होने के योग्य बनो. जब तक तुम्हारे साथ कामागाटा मारु जहाज़ जैसे दुव्यवहार होते रहेंगे, तब तक डैम काला मैन कहलाओगे, जब तक देश में जालियांवाला बाग़ जैसे भीषण कांड होंगे, जब तक वीरागंनाओं का अपमान होगा और तुम्हारी ओर से कोई प्रतिकार न होगा, तब तक तुम्हारा यह ढ़ोंग कुछ मानी नहीं रखता. कैसी शांती, कैसा सुख और कैसा विश्व प्रेम? यदि वास्तव में चाहते हो तो पहले अपमानों का प्रतिकार करना सीखो. माँ को आज़ाद कराने के लिए कट मरो. बंदी माँ को आज़ाद कराने के लिए आजन्म कालेपानी में ठोकरें खाने को तैयार हो जाओ. मरने को तत्पर हो जाओ.
मतवाला में ही भगत सिंह का दूसरा लेख 16 मई, 1925 को बलवंत सिंह के नाम से छपा. ध्यान दिलाने की ज़रूरत नहीं कि उन दिनों अनेक क्रांतिकारी छद्म नामों से लिखा करते थे. युवक शीर्षक से लिखे गए लेख का एक टुकड़ा प्रस्तुत है-

“अगर रक़्त की भेंट चाहिए तो सिवा युवक के कौन देगा? अगर तुम बलिदान चाहते हो तो तुम्हे युवक की ओर देखना होगा. प्रत्येक जाति के भाग्य विधाता युवक ही होते हैं. ……सच्चा देशभक्त युवक बिना झिझक मौत का आलिंगन करता है, संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मँह पर बैठकर मुस्कुराता है, बेड़ियों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फाँसी के तख्ते पर हँसते हँसते चढ़ जाता है. अमेरिकी युवा पैट्रिक हेनरी ने कहा था, जेल की दीवारों के बाहर ज़िंदगी बड़ी महँगी है. पर, जेल की काल कोठरियों की ज़िंदगी और भी महँगी है क्योंकि वहाँ यह स्वतंत्रता संग्राम के मू्ल्य रूप में चुकाई जाती है. ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफ़लत की नींद में पड़ा बेखबर सो रहा है. उठ! अब अधिक मत सो. सोना हो तो अनंत निद्र की गोद में जाकर सो रहा…… धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर. तेरे पूर्वज भी नतमस्तक हैं इस नपुंसत्व पर. यदि अब भी तेरे किसी अंग में कुछ हया बाकी हो तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आंसुओं की एक एक बूंद की सौगंध ले, उसका बेड़ा पार कर और मुक्त कंठ से बोल- वंदे मातरम!
प्रताप में भगत सिंह की पत्रकारिता को पर लगे. बलवंत सिंह के नाम से छपे इन लेखों ने धूम मचा दी. शुरुआत में तो स्वयं गणेश शंकर विद्यार्थी को पता नहीं था कि असल में बलवंत सिंह कौन है? और एक दिन जब पता चला तो भगत सिंह को उन्होंने गले से लगा लिया. भगत सिंह अब प्रताप के संपादकीय विभाग में काम कर रहे थे. इन्हीं दिनों दिल्ली में तनाव बढ़ा. दंगे भड़के और विद्यार्थी जी ने भगत सिंह को रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली भेजा. विद्यार्थी जी दंगों की निरपेक्ष रिपोर्टिंग चाहते थे. भगत सिंह उनके उम्मीदों पर खरे उतरे. प्रताप में काम करते हुए उन्होंने महान क्रांतिकारी शचिन्द्रनाथ सान्याल की आत्मकथा बंदी जीवन का पंजाबी में अनुवाद किया. इस अनुवाद ने पंजाब में देश भक्ति की एक नई लहर पैदा की. इसके बाद आयरिश क्रांतिकारी डेन ब्रीन की आत्मकथा का अँगरेजी से हिंदी अनुवाद किया. प्रताप में यह अनुवाद आयरिश स्वतंत्रता संग्राम शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इस अनुवाद ने भी देश में चल रहे आज़ादी के आंदोलन को एक वैचारिक मोड़ दिया.

गणेश शंकर विद्यार्थी के लाडले थे भगत सिंह. उनका लिखा एक एक शब्द विद्यार्थी जी को गर्व से भर देता. ऐसे ही किसी भावुक पल में विद्यार्थी जी ने भगत सिंह को भारत में क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आज़ाद से मिलाया. आज़ादी के दीवाने दो आतिशी क्रांतिकारियों का यह अदभुत मिलन था. भगत सिंह अब क्रांतिकारी गतिविधियों और पत्रकारिता दोनों में शानदार काम कर रहे थे. गतिविधियाँ बढ़ीं तो पुलिस को भी शंका हुई. खुफिया चौकसी और कड़ी कर दी गई. विद्यार्थी जी ने पुलिस से बचने के लिए भगत सिंह को अलीगढ़ ज़िले के शादीपुर गाँव के स्कूल में हेडमास्टर बनाकर भेज दिया. पता नहीं शादीपुर के लोगों को आज इस तथ्य की जानकारी है या नहीं.

भगत सिंह शादीपुर में थे तभी विद्यार्थी जी को उनकी असली पारिवारिक कहानी पता चली. विद्यार्थी जी खुद शादीपुर गए और भगत सिंह को मनाया कि वो अपने घर लौट जाएँ. दरअसल भगत सिंह के घर छोड़ने के बाद उनकी दादी की हालत बिगड़ गई थी. दादी को लगता था कि शादी के लिए उनकी ज़िद के चलते ही भगत सिंह ने घर छोड़ा है. इसके लिए वो अपने को कुसूरवार मानती थीं. भगत सिंह को पता लगाने के लिए पिताजी ने अख़बारों में इश्तेहार दिए थे. ये इश्तेहार विद्यार्थी जी ने देखे थे, लेकिन तब उन्हें पता नहीं था कि उनके यहाँ काम करने वाला बलवंत ही भगत सिंह है. इसी के बाद वे शादीपुर जा पहुँचे थे. भगत सिंह विद्यार्थी जी का अनुरोध कैसे टालते. फौरन घर रवाना हो गए. दादी की सेवा की और कुछ समय बाद पत्रकारिता की पारी शुरू करने के लिए दिल्ली आ गए. दैनिक वीर अर्जुन में नौकरी शुरू कर दी. जल्द ही एक तेज तर्रार रिपोर्टर और विचारोतेजक लेखक के रूप में उनकी ख्याति फैल गई.

इसके अलावा भगत सिंह पंजाबी पत्रिका किरती के लिए भी रिपोर्टिंग और लेखन कर रहे थे. किरती में वे विद्रोही के नाम से लिखते थे. दिल्ली से ही प्रकाशित पत्रिका महारथी में भी वो लगातार लिख रहे थे. विद्यार्थी जी से नियमित संपर्क बना हुआ था. इस कारण प्रताप में भी वो नियमित लेखन कर रहे थे. पंद्रह मार्च 1926 को प्रताप में उनका झन्नाटेदार आलेख प्रकाशित हुआ. एक पंजाबी युवक के नाम से लिखे गए इस आलेख का शीर्षक था- भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का परिचय और उपशीर्षक था- होली के दिन रक्त के छींटे. इस आलेख की भाषा और भाव देखिए- “असहयोग आंदोलन पूरे यौवन पर था. पंजाब किसी से पीछे नहीं रहा. पंजाब में सिक्ख भी उठे. ख़ूब ज़ोरों के साथ. अकाली आंदोलन शुरू हुआ. बलिदानों की झड़ी लग गई.”
काकोरी केस के सेनानियों को भगत सिंह ने सलामी देते हुए एक लेख लिखा. विद्रोही के नाम से. इसमें वो लिखते हैं “हम लोग आह भरकर समझ लेते हैं कि हमारा फ़र्ज पूरा हो गया. हमें आग नहीं लगती. हम तड़प नहीं उठते. हम इतने मुर्दा हो गए हैं. आज वे भूख हड़ताल कर रहे हैं. तड़प रहे हैं. हम चुपचाप तमाशा देख रहे हैं. ईश्वर उन्हें बल और शक्ति दे कि वे वीरता से अपने दिन पूरे करें और उन वीरों के बलिदान रंग लाएँ. जनवरी 1928 में लिखा गया यह आलेख किरती में छपा था. इन दो तीन सालों में भगत सिंह ने लिखा और खूब लिखा. अपनी पत्रकारिता के ज़रिए वो लोगों के दिलोदिमाग पर छा गए. फ़रवरी 1928 में उन्होंने कूका विद्रोह पर दो हिस्सों में एक लेख लिखा. यह लेख उन्होंने बी एस संधु के नाम से लिखा था. इसमें भगत सिंह ने ब्यौरा दिया था कि किस तरह छियासठ कूका विद्रोहियों को तोप के मुंह से बाँध कर उड़ा दिया गया था. इसके भाग-दो में उनके लेख का शीर्षक था -युग पलटने वाला अग्निकुंड. इसमें वो लिखते हैं- “सभी आंदोलनों का इतिहास बताता है कि आज़ादी के लिए लड़ने वालों का एक अलग ही वर्ग बन जाता है, जिनमें न दुनिया का मोह होता है और न पाखंडी साधुओं जैसा त्याग. जो सिपाही तो होते थे, लेकिन भाड़े के लिए लड़ने वाले नहीं, बल्कि अपने फ़र्ज़ के लिए निष्काम भाव से लड़ते मरते थे. सिख इतिहास यही कुछ था. मराठों का आंदोलन भी यही बताता है. राणा प्रताप के साथी राजपूत भी ऐसे ही योद्धा थे और बुंदेलखंड के वीर छत्रसाल और उनके साथी भी इसी मिट्टी और मन से बने थे”. यह थी भगत सिंह की पढ़ाई. बिना संचार साधनों के देश के हर इलाक़े का इतिहास भगतसिंह को कहाँ से मिलता था, कौन जानता है.

मार्च से अक्टूबर 1928 तक किरती में ही उन्होंने एक धारावाहिक श्रृंखला लिखी. शीर्षक था आज़ादी की भेंट शहादतें. इसमें भगतसिंह ने बलिदानी क्रांतिकारियों की गाथाएँ लिखीं थी. इनमें एक लेख मदनलाल धींगरा पर भी था. इसमें भगतसिंह के शब्दों का कमाल देखिए-“फाँसी के तख़्ते पर खड़े मदन से पूछा जाता है- कुछ कहना चाहते हो? उत्तर मिलता है- वन्दे मातरम! माँ! भारत माँ तुम्हें नमस्कार और वह वीर फाँसी पर लटक गया. उसकी लाश जेल में ही दफ़ना दी गई. हम हिन्दुस्तानियों को दाह क्रिया तक नहीं करने दी गई. धन्य था वो वीर. धन्य है उसकी याद. मुर्दा देश के इस अनमोल हीरे को बार बार प्रणाम."
भगतसिंह की पत्रकारिता का यह स्वर्णकाल था. उनके लेख और रिपोर्ताज़ हिन्दुस्तान भर में उनकी कलम का डंका बजा रहे थे. वो जेल भी गए तो वहां से उन्होंने लेखों की झड़ी लगा दी. लाहौर के साप्ताहिक वन्देमातरम में उनका एक लेख पंजाब का पहला उभार प्रकाशित हुआ. यह जेल में ही लिखा गया था. यह उर्दू में लिखा गया था. इसी तरह किरती में तीन लेखों की लेखमाला अराजकतावाद प्रकाशित हुई. इस लेखमाला ने देश के व्यवस्था चिंतकों के सोच पर हमला बोला. उनीस सौ अट्ठाइस में तो भगत सिंह की कलम का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोला. ज़रा उनके लेखों के शीर्षक देखिए- धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम, साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज, सत्याग्रह और हड़तालें, विद्यार्थी और राजनीति, मैं नास्तिक क्यों हूँ, नए नेताओं के अलग अलग विचार और अछूत का सवाल जैसे रिपोर्ताज़ आज भी प्रासंगिक हैं. इन दिनों दलितों की समस्याएं और धर्मांतरण के मुद्दे देश में गरमाए हुए हैं लेकिन देखिए भगत सिंह ने 87 साल पहले इस मसले पर क्या लिखा था -” जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया बीता समझोगे तो वो ज़रूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे. उन धर्मों में उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा फिर यह कहना कि देखो जी ईसाई और मुसलमान हिन्दू क़ौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा. कितनी सटीक टिप्पणी है? एकदम तिलमिला देती है. इसी तरह एक और टिप्पणी देखिए- “जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं. हर कोई उन्हें अपनी खुराक समझ रहा है तो वे अलग और संगठित ही क्यों न हो जाएं? हम मानते हैं कि उनके अपने जन प्रतिनिधि हों. वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें. उठो ! अछूत भाइयो उठो! अपना इतिहास देखो. गुरु गोबिंद सिंह की असली ताक़त तुम्ही थे. शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही कुछ कर सके. तुम्हारी क़ुर्बानियाँ स्वर्ण अक्षरों में लिखीं हुईं हैं. संगठित हो जाओ. स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी न मिलेगा. तुम दूसरों की खुराक न बनो. सोए हुए शेरो! उठो और बग़ावत खड़ी कर दो.

इस तरह लिखने का साहस भगत सिंह ही कर सकते थे. बर्तानवी शासकों ने चाँद के जिस ऐतिहासिक फांसी अंक पर पाबंदी लगाईं थी, उसमें भी भगतसिंह ने अनेक आलेख लिखे थे. इस अंक को भारतीय पत्रकारिता की गीता माना जाता है.

और अंत में उस पर्चे का ज़िक्र, जिसने गोरों की चूलें हिला दी थीं. आठ अप्रैल ,1929 को असेम्बली में बम के साथ जो परचा फेंका गया, वो भगत सिंह ने लिखा था. यह परचा कहता है- बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की आवश्यकता होती है…. जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियमेंट का पाखंड छोड़ कर अपने अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के खिलाफ क्रांति के लिए तैयार करें… हम अपने विश्वास को दोहराना चाहते हैं कि व्यक्तियों की हत्या करना सरल है, लेकिन विचारों की हत्या नहीं की जा सकती.

इंक़लाब! ज़िंदाबाद!